समाज का कड़वा सच-2

जलती चिता भी क्या खूब बयां कर गई गवाह मुझे बना रिश्तो की मौत का मेरी उम्मीदें भी तबाह कर गई सोचते रहा पूरी रात जीवन का यही है काला सच किसे समझे अपना किसे समझे पराया यही सोचकर हमने गुजारी उनकी यादों में रात उधर वह मुझे छोड़ अब तक हो चुके थे खाक ना फ़िक्र न चिंता, अब तो एक राख का ढेर है अब ना होती किसी को शिकायत उनसे वह निभा गए अपने वादे अब रिश्तो की बारी है चलो अस्थियां चुन ले होने लगी दर्पण की तैयारी है....

देर रात तक न जाने कितनी पुरानी यादों के साथ मैं तिल तिल कर जीता व मरता रहा, कभी मित्र संग गुजारी हुई मीठी यादें मन को खुशियों से भर देती है, और ऐसा लगता जैसे वह सामने बैठ कर मुस्कुरा रहा हो, तो दूसरे ही पल विरानी रात टिट्टियों की आवाज और जलती चिता का परिदृश्य सब कुछ जैसे जीवन का मोह छीन लेती हो।

वैराग्य सा होने लगा जीवन से और हो भी कैसे न, कल तक जिस मित्र के साथ रिटायरमेंट के बाद के जीवन के सपने संजोए करता था, उसने मेरी ही बाहों में दम तोड़ा और उन्हीं कंधों ने उसे श्मशान भूमि तक पहुंचाया था।

भला यह कैसा जीवन है???क्या यही अंतिम सत्य है???? यदि हां तो फिर यह यत्न कैसा???? बड़ी ही उलझनों में ना जाने कैसी रात कटी और कब आंख लग गई पता ही ना लगा,,

मित्र का घर मेरे घर के ठीक सामने ही था, इसलिए सुबह सुबह उन रिश्तेदारों का आना जाना जो किसी कारणवश न आ पाए थे, किसी उलझन के कारण आज अपनी व्यवस्था बताते हुए जानबूझकर कल नहीं पहुंचे, लेकिन मजबूरी वश लोक-लज्जा देख आज दिखावे की खातिर सही आकर पहुंचे और आते ही ऐसे दहाड़े मार मार कर रोने लगे जैसे अब बस वही अपने प्राण त्यागने वाले हैं।

लेकिन यह सब सिर्फ पल दो पल के खातिर, फिर उसके बाद सब कुछ सामान्य.....कैसे झूठे रिश्ते हैं, क्या यही समाज है???? क्या इन्हीं की खातिर पूरी उम्र हम इतनी मेहनत और इसी खुशी के लिए मशक्कत करते हैं.....

जिन्हें हमारे पश्चात अंतिम क्रिया के लिए भी समय नहीं है।

वा रे दुनिया अब रिश्तो से घिन सी आने लगी, मेरी ओझल और भीगी हुई आंखों में समाया हुआ दर्द श्रीमती जी भाप गई, और मुझे अपनी बातों में उलझाने का विफल प्रयास करने लगी, और थक हारकर उसने जाकर मेरी शिकायत पिताजी से कर दी......

बूढ़े पिता ने पहले मुझे पास बिठाया, फिर समझाकर खुद रुंधे गले से समाज का सत्य समझाया,

एक पल उन्हें देखकर ऐसा लगा जैसे वह खुद अपनी मृत्यु के पश्चात की सोच में डूब गए हो, जिसे मैंने तुरंत भाप लिया, और अपने आप को संभालते हुए उस कमरे से बाहर निकला।

तभी मैं बाहर झांक कर देखता हूं तब मेरे मित्र के घर भारी भीड़ का जमावड़ा देख मुझे बड़ी चिंता हुई और मैं वहां जा कर देखता हूं कि वहां चिंता नहीं चिंतन का विषय था। सभी लोग किसी खास विषय पर चर्चा करते दिखे, मैं भी कौतुहलवश रुक गया चर्चा का मुख्य विषय था, नौकरी दोनों बेटो में किसे दी जाये और बाकि पैसो को किसे दिए जाये......

पूरा जनसमूह दो हिस्सों में बटा नजर आ रहा था, तभी छोटा बोला अंकल आप ही बताये की किसको क्या मिलना उचित होगा...... मेरे काटो तो खून नहीं, कल तक जिस परिवार में मित्र के ठीक होने की दुवाये थी आज वहां बटवारे क माहौल था,

आखिरकार लाख न नुकुर के बाद मैं भी उस भीड़ का हिस्सा बन गया, अंततः तय हुआ की छोटे को नौकरी और बड़े को पैसा मिलेगा, माँ छोटे के पास रहेगी, बहन को भोपाल का मकान दिया जाएगा.....

शांतिपूर्वक सभी कार्यक्रम निपटाए बाकि बाद में देखा जायेगा, इसके साथ सभा की समाप्ति हुई और लोगो ने मुझे एक उम्दा निर्णायक घोषित करते हुए मुझे सबसे अच्छा मित्र की अभिव्यक्ति दी, जो मुझे बहुत खल रहा था..... काफी सोच विचार के बाद मैं वहाँ से चला आया, अपने अंतरमन के अन्तर्द्वन्द के साथ.......

क्रमशः.............

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1 Comments

Mohammed urooj khan

04-Nov-2023 12:54 PM

👍👍👍👍

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